Page 110 - Musings 2020
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पतझड़ म प े जब िगरते होंगे
Digvijay Bansal 2015A3PS0187P
पतझड़ म प े जब िगरते होंगे ,
या कभी िफर िमलते होंगे |
या वो बात पूरी हो पाती होंगी ,
या उस शाखा पर क जाती होंगी |
िजस शाखा पर वो िखले थे ,
क ु छ कहते वो िफर िमले थे |
उनको लगा वो िगरकर संभल गए ,
जो आसमान म तैरते बेिफक ् र थे ,
वो जमीन पर िगरे तो , बस ढेर बन कर जल गए |
तेरी ह को पढता हूँ ,
िकसी पुरानी िच ी की तरह |
जो िकसी िदल ने िलखी थी ,
िकसी की यादों म |
तेरी खुशबू है मानो , िकसी सावन की तरह |
जो हमराज़ सी रहती है ,
तनहा भीगी रातों म |
ना जाने तू िकसी ि ितज सी लगती है ,
िजसे देख तो सकता हुँ ,
पर छूना मुमिकन नहीं |
इस लु काछु पी म म ने जाना की ,
तू मुझमे है पर मेरा तुझमे होना मुमिकन नहीं |
इस लािलमा का पीछा क ँ ,
या ठहर जाऊ ँ अपनी ईमारत पर |
ये रात होने दूँ , या पीछा क ँ ,
यूंिक ये रात बेगैरत कटेगी सुबह के इंतज़ार म |
रात का खौंफ हो गया है ,
देखता हूँ ऊपर तो लगता है िक ,
ये चाँद क भकत सो गया है |
चांदना की िकरण तीरो सी लगती है ,
लोगो की परछाई सालखों सी लगती है ,
सूरज का डूबना अब बेवजह सा लगता है ,
रात का होना अब बस सजा सा लगता है |
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